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‘वेश्या’ आज़ाद उन्मुक्त स्वच्छंद स्त्री का सामाजिक नामकरण है। वेश्या जैसी यानि उतनी ही स्वतंत्र जितनी आजादी वेश्या को सुलभ है। हालांकि मेरी मान्यता है कि ‘वेश्या’ भी पुरुष समाज के छ्द्म प्रपंच से उपजी ‘कथित – आजाद स्त्री’ है जिसे अपने तन को किसी को भी भोगने की छूट देने की इजाजत नहीं है। वह भी उसी कुचक्र से पीड़ित एक अबला नारी का प्रतिरूप है जिसकी मर्दवादी समाज के कठोर मानकों के अनुसार अपनी जिंदगी बसर करने की मजबूरी है।
शायद अब मेरे मन के भीतर मुझे झकझोर कर रख देने वाली कोई भावना नहीं। ऐसा लगता है जैसे आंखें आदी हो गई हैं आधुनिकता के आवरण में पुरानी मानसिकता से प्रभावित लोगों को देखने की। खैर यह तो बाद की बात है। मैं अपने इस लेख को अपने बचपन के उस प्रश्न से शुरू करूंगी जो मैंने अपनी माता से पूछा था। उस दौरान मेरी उम्र दस साल की रही थी।
महाभारत में द्रोपदी के चीर हरण का दृश्य मेरी आंखों के सामने चल रहा था। कुरुवंश के दरबार में कौरवों के सामने पांडव हार जाते हैं और इस हार-जीत के खेल में पांडव अपनी पत्नी द्रोपदी को दांव पर लगा देते हैं। यही घटना इतिहास की पहली ऐसी घटना बन जाती है जब एक महिला को दांव पर लगाया जाता है। भरी सभा में दुःशासन द्रोपदी को उसके बालों के सहारे खींचते हुए सब के सम्मुख लाता है। अंत में द्रोपदी सभी कुरुवंशियों को धिक्कारती हैं पर कोई भी कुरुवंशी द्रोपदी की मदद करने के लिए आगे नहीं आता है। गांधारी भी आंखों पर पट्टी बांधे हुए द्रोपदी के सम्मुख ही खड़ी रहती हैं। जब द्रोपदी को इस बात का एहसास हो जाता है कि अब कोई भी कुरुवंशी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आने वाला है तब वो भगवान कृष्ण को याद करती हुए कहती हैं कि ‘मेरी लाज आज रख ले तू मेरे केशव धर्म सुरक्षक कृष्ण’।
इसी दृश्य के दौरान मैं अपनी मां को हैरतमन आंखों से देखते हुए उनसे एक प्रश्न पूछती हूं कि ‘मां, द्रोपदी सभी कुरुवंशियों के आगे अपनी सुरक्षा की भीख क्यों मांग रही हैं ? वो स्वयं भी तो अपनी सुरक्षा कर सकती हैं? मां ने बड़ी सरलता के साथ प्रेमभाव से मेरी तरफ देखते हुए मुझे उत्तर दिया कि ‘बेटी पुरुषों का कर्तव्य स्त्रियों की सुरक्षा करना होता है और यह कार्य कुरुवंशी नहीं कर पा रहे इसलिए द्रोपदी भगवान कृष्ण के सम्मुख अपनी लाज बचाने के लिए प्रार्थना कर रही हैं’। दस साल की उम्र में पूछे गए मेरे सवाल ने मुझे मेरी मां के उत्तर से पूर्ण रूप से संतुष्ट तो नहीं किया था पर हां, मैंने अपनी मां की हां में हां जरूर मिला दी थी। उम्र दिन पर दिन बढ़ रही थी और जब अठारह वर्ष की हुई तो मैंने जो सवाल अपनी मां से किया था उसका जवाब मुझे मेरे द्वारा ही मिला कि स्त्रियों ने पुरुषों को स्वयं यह अधिकार दिया कि वो उनकी रक्षा करें। इसलिए जब पुरुष का मन चाहता है तब स्त्री की रक्षा करता है और जब उसका मन चाहता है तब स्त्री की इज्जत को भरे समाज मे उतार देता है। हम स्त्रियां इतनी नादान होती हैं कि सीमाओं में रहकर आजादी की बात करती हैं जब कि वास्तविक सच यह है कि आजादी केवल ‘आजादी’ होती है यदि उसमें नाम मात्र के लिए भी सीमा शब्द जुड़ जाए तो वो ‘आजादी’ केवल पिंजरे में बंद पक्षी की उस आजादी की तरह बन जाती है जिसे बोला तो जाता है कि वो आजाद है लेकिन उसे आकाश में उसकी मर्जी से उड़ने की आजादी नहीं दी जाती है।
मेरी उम्र ठहरी थी या बढ़ रही थी इस ओर मेरा ध्यान कभी नहीं गया। मैं केवल यह सोच रही थी कि मेरी समझ का दायरा बढ़ रहा है या नहीं। उसी दौरान मैंने ‘चित्रलेखा’ और ‘दिव्या’ जैसे कुछ उपन्यास पढ़े जिन्हें पढ़ने के बाद स्त्री के दो चेहरे मेरे सामने आए – एक वो स्त्री जो अपने तमाम जिंदगी पुरुष शब्द का सहारा खोजती रहती है और दूसरी तरफ वो स्त्री जो समाज में वेश्या बनकर रहने में संतुष्टि प्राप्त करती है। दिव्या उपन्यास का आधार मुझे ज्यादा आकर्षक लगा जिसमें स्त्री को तमाम बंधन तोड़कर जिंदगी को जीना सिखाया गया है। उस उपन्यास में कदापि यह नहीं कहा गया कि समाज में रहने वाली सभी स्त्रियों को वेश्या बन जाना चाहिए बल्कि यह कहा गया कि स्त्री की जिंदगी बंधनों से मुक्त होनी चाहिए और वह स्वयं ही अपनी जिंदगी को तमाम बंधन से मुक्त बना सकती है ना कि किसी पुरुष के सहारे।
मेरी उम्र का वो दौर भी बीत चुका था जहां मैं स्त्री समाज की दुर्दशा के लिए केवल पुरुष समाज को दोषी बता रही थी। अब मेरी आंखों के सामने वो सच्चाई आई जिसे अपनाना थोड़ा मुश्किल था पर अनदेखा भी नहीं किया जा सकता था। स्त्री समाज की दुर्दशा के लिए केवल पुरुष समाज ही नहीं बल्कि स्वयं स्त्रियों का सबसे बड़ा हाथ था। स्त्री ही तो पुरुष समाज के सम्मुख विनती करती है कि मेरे लिए नियम बनाओ, मुझे आजादी दो, मेरे लिए कथित मर्यादाएं बनाओ फिर कैसे वो अपनी दुर्दशा के लिए पुरुष समाज को जिम्मेदार ठहरा सकती है। वस्तुत: मैंने अपने सम्मुख ऐसी स्त्रियों को देखा जो स्त्री समाज की सबसे बड़ी पक्षधर बनने का दावा करती हैं पर साथ ही यह भी कहती है कि उन्हें झुकना नहीं आता है वो केवल एक सीमा के अंतर्गत ही झुकना पसंद करती हैं। ऐसी स्त्रियों को इस बात पर विचार करने की सख्त आवश्यकता है कि या तो वो सपूर्ण तरीके से झुक जाएं या फिर दृढ़ होकर खड़ी रहें क्योंकि जिस कथित समाज की सीमाओं के अंतगर्त वो झुकने की बात करती हैं वो सीमाएं भी पुरुष द्वारा ही निर्धारित की जाती हैं।
इन आंखों ने समाज में ऐसी बहुत सी स्त्रियां देखी हैं जो स्त्री नाम की सुरक्षा को लेकर चिल्लाती तो बहुत हैं लेकिन उनके कार्य वास्तविक जीवन में शून्य के बराबर होते हैं। स्त्रियों ने हो ना हो अपनी बात चिल्लाकर बोलने की प्रेरणा मां काली या मां दुर्गा से ली होगी पर वो मां काली या मां दुर्गा की तरह शत्रुओं का नाश करना भूल गईं। आप मेरे इस लेख से जरा भी यह मत समझना कि मैं स्त्री समाज की आलोचक हूं पर हां, मैं स्त्री समाज से खफा जरूर हूं। कभी-कभी मन में विचार आता है कि क्या कृष्ण भगवान हर बार महिलाओं की लाज बचाने के लिए धरती पर अवतार लेते रहेंगे या फिर दिव्या उपन्यास में लिखा हुआ वाक्य कि ‘समाज में रहने वाली स्त्री से ज्यादा वेश्या अपनी जिंदगी को आजाद होकर जीती है’ इस वाक्य को मुझे भी अपने जीवन का आधार बना लेना चाहिए?
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