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इस लेख को लिखने का कारण घर पर बैठी और हर रोज की तरह ऑफिस जाती उन महिलाओं को नींद से जगाना है जो यह समझती हैं कि चलती बस में 23 वर्षीय दामिनी के साथ जो हुआ वो कभी भी उनके साथ नहीं हो सकता है. क्या महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के लिए सिर्फ पुरुष प्रधान समाज ही दोषी है? नहीं. महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के लिए महिलाओं की चुप्पी भी जिम्मेदार है. महिलाओं को अपनी चुप्पी तोड़ यह सोचना बंद कर देना चाहिए कि ‘वो महिला वो नहीं हैं.
अभागी, अभागी….कहना गलत नहीं है क्योंकि वास्तव में अभागी है तू. चुप है तू और शायद जिंदगी भर चुप ही रहेगी क्योंकि चलती बस में बलात्कार सहन करने वाली लड़की तू नहीं है. रात भर पति की मार सहन करने वाली महिला तू नहीं है. जब किसी औरत के गर्भ में स्त्री भ्रूण होने के कारण उसका गर्भपात किया जाता है तो तभ भी तू चुप रहती है यह सोचकर कि वो महिला तू नहीं है. बस, मेट्रो और भरे समाज में जब छेड़खानी की जाती है और किसी महिला या लड़की की इज्जत भरे समाज में उतारी जाती है तब भी तू चुप रहती है क्योंकि वो महिला या लड़की तू नहीं है. चुप है तू क्योंकि सफदरजंग, एम्स से 16 वर्ष की उम्र में गर्भपात करा कर निकलती मासूम लड़की तू नहीं है. जब कभी कोई माता-पिता किसी कारण अपनी बेटी को बेच देते हैं और जब समाज में सरे आम महिला की कीमत लगाई जाती है तब भी तू चुप रहती है क्योंकि वो महिला तू नहीं है. वेश्या बनकर हर दिन मरने वाली महिला तू नहीं है….चुप है तू क्योंकि वो तू नहीं है. चुप है तू क्योंकि शराब पीकर आए पति की जबरदस्ती के कारण हर रात हमबिस्तर होने वाली महिला तू नहीं है. गर्भपात कराने के बाद अपने आप को चूल्हे की आग में झोकती महिला तू नहीं है और ऐसे ही चुप रहना क्योंकि वो तू नहीं है. जब किसी औरत के माथे पर से लाल सिदूंर मिटा दिया जाता है और बदले में सफेद चुनरी जीवन भर के लिए ओढ़ा दी जाती है तब भी तू चुप रहती है क्योंकि वो महिला तू नहीं है. छोटी सी उम्र में बाल-विवाह होने पर कंधे पर घर-परिवार का बोझ उठाकर जीवन का सफर तय करने वाली महिला तू नहीं है. तू चुप है क्योंकि दहेज के नाम पर हर रोज जुल्म सहन करने वाली महिला तू नहीं है. तू चुप इसलिए है कि शादी के अगले दिन ही आग की लपटों में जलने वाली नारी तू नहीं है. चुप है तू क्योंकि मां ना बनने पर बांझ का ताना सुनने वाली महिला तू नहीं है और अपने ही रिश्तेदारों से बलात्कार सहन करने वाली महिला भी तू नहीं है. तू आज भी चुप है जब तेरे साथ हुए बलात्कार के लिए तुझे ही दोषी माना जाता है और तेरे नाम को इस कदर छिपाया जाता है जैसे तूने ही कोई अपराध किया हो. शायद तू चुप ही रहेगी क्योंकि हर दिन समाज का बहिष्कार सहन करने वाली महिला तू नहीं है. सच कहूं तो अभागी है तू… जो यह सोचती है कि वो महिला ‘तू’ नहीं है.
वस्तुतः स्त्री-पुरुष विभेद का सांस्कृतिक क्रम उनकी शारीरिक रचना के भेद से आरंभ हुआ किंतु इस भेद का विस्तार नारी मन पर पड़े सम्मोहन के असर से ज्यादा होता गया. नारी को कभी भी अपनी उस शक्ति सामर्थ्य का अंदाजा नहीं हो पाया जो उसकी शालीनता, उसकी सहन शक्ति एवं धैर्य में विद्यमान रहा है इसलिए प्रतिकार की भावना उसके भीतर जन्म ले ही नहीं पाती तथा वह उसी मर्दवादी अहंकार का शिकार बन जाती है जिसे वह बहुत सहज ढंग से रूपांतरित कर सकती थी.
नारी पर हो रहे हर अत्याचार पर नारी समुदाय का मूक समर्थन उसे और भी अधिक प्रोत्साहित करता है. प्रायः यही देखा जाता रहा है कि नारियां स्वयं किसी नारी पर हो रहे अन्याय को किसी रोचक घटना की तरह सुनती-सुनाती हैं तो ऐसे में उनसे ये कैसे उम्मीद की जा सकती है कि जब वे राह में गुजरते हुए किसी स्त्री या युवती को संकट में देखें तो उसका पक्ष लें. इसके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नारी आज भी स्वयं को आश्रित की भूमिका में ही रखती है और किसी पुरुष के संरक्षण को सहज रूप से स्वीकार कर लेती है जबकि उसे ये ज्ञान होता है कि ऐसा करने से उसकी और उसके समुदाय की आत्मा तक बंधक बन जाएगी. पुरुष संरक्षण की ऐसी चाहत उनमें प्रतिकार की भावना को काफी हद तक निर्मूलित कर देती है. नारी शौर्य, साहस तथा स्वतंत्र रूप से प्रगति की सारी राहें उसके सांस्कृतिक उत्थान के आवरण के नीचे दम तोड़ रही हैं तथा नारी की आवाज किसी रेगिस्तान से आती हुई वह विरल जल धारा बन जाती है जिससे न तो पथिक की प्यास बुझती है और न ही उससे किसी परिवर्तन की आशा बांधी जा सकती है.
यकीनन बदलाव अपेक्षित है, समय पुकार रहा है, उठो, जागो, पहचानो अपने आप को, अपने भीतर छुपी हुई उस शक्ति को, स्वर दो अपने क्षोभ को, प्रतिकार करो अन्याय का, आरंभ करो परिवर्तन का ताकि फिर किसी नारी को केवल इस कारण न शहादत देनी पड़े क्योंकि उसका अपना समुदाय आत्मविमोहित होकर केवल अपना घर संवारने में लगा हुआ था.
गुज़ारिश (कीर्ति चौहान)
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