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‘मेरी आंखों को बंद रहने दो और मुझे उस अहसास में खो जाने दो जहां मेरा तन-मन तुम से जा मिलता है,
यकिन मानो मैं अधूरी थी और अधूरी हूं,
कम से कम इस पल भर के अहसास में मुझे पूरा हो जाने दो’
‘अजीब था वो अहसास जब तुम्हारे होंठो को मैंने अपने होंठों के करीब पाया था
और मेरी नजरों का झुकना तुम्हें मेरा शर्माना लगा था,
पर पगले थे तुम जो यह समझ ना सके कि मेरी झुकी पलकों ने इस अहसास को हमेशा के लिए अपनी पलकों में बंद कर लेना चाहा था’
‘सच में अजीब था वो अहसास जब राह में चलते-चलते तुम ने मेरा हाथ थामा था…..
कभी मुझे अपनी तरफ खींचा…
कभी मेरी तरफ खिंचे चले आए थे
पर पगली थी जो यह भूल गई कि दो अलग राहें कभी नहीं मिला करती हैं’
‘अजीब था वो अहसास,
जब तुम्हारी सांसों की आवाज मेरे तन को इस कदर मेहका दिया करती थी
जैसे भंवरे ने फूल का रस पिया हो पर पगली थी मै,
जो यह भूल गई कि भंवरा फूल के साथ ज्यादा समय तक नहीं रह पाता है,
अंत में फूल को बगीचे से तोड़ लिया जाता है’
‘अजीब था वो अहसास,
जब मेरी सावरी सी कमर पर तुम अपनी अंगुलियों को फेरा करते थे
और मैं इस अहसास में खो जाया करती थी,
पर पगली थी मैं जो यह जान ना सकी कि तन का प्यार मन में नहीं बसा करता है’
‘अजीब था वो अहसास,
जब मुझे तुम्हारे साथ बिताया पल भर का साथ जिंदगी भर का साथ लगता था
पर पगली थी मैं
जो यह भूल गई कि पल भर में जिंदगी का सफर नहीं बीता करता है’
‘वो अहसास ही था
जब मैंने तुम्हारी सांसों को अपनी सांसों में शामिल कर लिया था
और इस बात पर यकिन कर लिया था
कि तुम अब सिर्फ मेरे हो, पर पगली थी
मैं जो भूल गई कि अहसास हमेशा अधूरा ही होता है.. अधूरा ही होता है..पल भर का अहसास’
“कभी यादों की, कभी तन्हाई की, कभी जुदाई की, कभी सुख-दुख की गुजारिश ही किसी भी लेखक को अपनी कलम चलाने के लिए मजबूर करती है”
गुजारिश (कीर्ति चौहान)
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