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वाह रे मेरी सरकार अब तो तू खुश हो रही होगी. बड़ी मात्रा में मीडिया समूह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है कि केन्द्र सरकार ने पहली बार छक्का मार दिया पर मीडिया की बातों का क्या भरोसा करना मेरे यारों…. शहीद होने आया था मुसाफिर उसे शहीद ही बना दिया और सरकार अपना सीना चौड़ा कर कहती है कि आरोपी को सजा-ए-मौत दे दी. कोई पूछे इस लड़खड़ाती सरकार से कि मौत तो वो चाहता ही था और उसकी इच्छा पूरी करके सरकार ने कौन सा तीर मार लिया. आतंकवादी जब आतंक फैलाने के लिए निकलता है तो वो मौत को अपना साथी बना लेता है ऐसे में आतंकवादी को यह भय कभी भी नहीं होता है कि जब वो जेहाद के नाम पर आतंक फैलाने निकलेगा तो उसे मौत मिलेगी बल्कि उसके लिए वो मौत नहीं अपने आतंकवादी समूह तथा कौम के लिए शहादत होती है.
‘यदि मेरे पास वक्त रहा होता तो मैं बहुत से लोगों को मार सकता था’ कसाब की इस बात को मीडिया ने पकड़कर खूब अपना धंधा चलाया यहां तक कि वाचाल मीडिया सज़ा-ए-मौत का फैसला भी सुनाने लगी खैर इसमें नई बात क्या है. मीडिया की आदत है लोकतंत्र का सशक्त प्रहरी बनने का ढोंग रचाने की. लोकतंत्र का दायित्व जिन हाथों में सौंपा गया है वो ही रक्षक लोकतंत्र का कत्लेआम करते हैं.
सरकार ने कसाब को फांसी दे कर एक साथ कई निशाने साध लिए हैं. केंद्र सरकार जिस पर विपक्ष यह आरोप लगाता था कि मुस्लिम परस्त सरकार है और लोकतंत्र के लिए फैसले लेने में असमर्थ हैं अब यह मुद्धा विपक्ष के लिए शायद ओझल हो जाएगा क्योंकि केंद्र सरकार ने कसाब को फांसी की सजा आम चुनाव से पहले देकर अपनी छवि को साफ करने की कोशिश की है. कसाब केंद्र सरकार के लिए लॉटरी का वो टिकट था जिसे उपयोग करने का निर्णय केंद्र सरकार ने पहले ही ले लिया था फिर क्या फर्क पड़ता है कि लॉटरी के टिकट का उपयोग सही इच्छा से किया गया या नहीं. अब तो केंद्र सरकर विपक्ष के सामने सीना चौड़ा करके कह सकती है कि आतंकवाद के हम खिलाफ हैं और फिर गुनाहगार मुस्लिम ही क्यों ना हो हम किसी भी कीमत पर उसे सजा-ए-मौत देंगे.
अमूमन कोई भी परिघटना केवल तीन-चार महीनों तक जनता के जहन में रहती है और उसका असर वोटों पर होता है इसीलिए सरकार ने यह फैसला संसदीय चुनाव के सवा साल पूर्व लिया ताकि मुस्लिमों को होने वाला घाव भर जाए तथा इस बीच सरकार उन्हें कुछ अतिरिक्त लॉलीपॉप थमा कर उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश करेगी.
तीसरा ऐसे समय में जबकि सरकार पर बहुत सारे आरोप लगते जा रहे हैं, उसने स्वयं की विश्वसनीयता कायम की कोशिश की तथा साथ ही जनता का ध्यान भी उन मुद्दों से हटाने की कोशिश की है.
वास्तव में देखा जाए तो कसाब को शहीद का दर्ज़ा दिलवाने में हमारे पूरे तंत्र का हाथ है. पहले तो न्यायालय और मीडिया ने कसाब के वीरोचित वक्तव्य को हाईलाइट किया फिर सरकार ने उसे काफी दिनों तक मेहमान बना कर अचानक फांसी पर लटका दिया. ऐसे में कसाब एक खास समुदाय के लिए शहीदों की तरह निडर, अपनी कौम के लिए जान न्यौछावर करने वाला, कौम की हिफाजत के लिए कुछ भी कर गुजरने वाला वीर पुरुष साबित हो सकता है. कुछ मूढ़मति उसको नायक भी मान सकते हैं.
एक और मसला है जिस पर विचार करना चाहिए कि यदि कसाब जैसे आतंकवादी को उम्र भर सड़ने के लिए जेल में रखा जाता तो यह बड़ा दंड होता या उसे पल भर में मार कर उसे मुक्ति प्रदान कर देने से उसे सजा मिली जबकि वह मरना ही चाहता था.
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