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सवाल प्रधानमंत्री का ?
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां आधिकारिक रूप से सर्वोच स्थान राष्ट्रपति का है, अधिक अधिकार सदैव प्रधानमंत्री के पास होते हैं. किंतु आज भारत के प्रधानमंत्री की स्थिति पर अनेक सवाल खड़े हो गए हैं. पुराना मुहावरा है, ‘आप मियां फजीहत, दूसरों को नसीहत’. इस वक्त यही हाल अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का लगता है. उन्होंने हाल ही में फरमाया है कि उन्हें अमेरिकी व्यापारियों से पता चला कि भारत में विदेशी निवेश का माहौल बिगड़ रहा है तथा यदि खुदरा व्यापार जैसे क्षेत्रों को विदेशी निवेश के लिए बाधामुक्त करने में देर हुई तो बात और बिगड़ सकती है. पर यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि कुछ ही दिन पहले ‘टाइम मैगजीन’ ने भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को ‘फिसड्डी’ घोषित किया है या थोड़ा सम्मान देते हुए कहें तो ‘अंडरअचीवर’ बताया है.
इतना काफी नहीं था कि एक और सवाल ने मनमोहन सिंह को घेर लिया. ‘द इंडिपेंडेंट’ नाम के ब्रिटिश अखबार ने शिष्टाचार की सीमाओं को लांघते हुए ‘मनमोहन सिंह- इंडियाज सेवियर ऑर सोनियाज पूडल’ शीर्षक से लेख प्रकाशित किया है. विवाद को देखते हुए अख़बार ने अपने वेब एडिशन पर मौजूद हेडलाइन में ‘पूडल’ शब्द हटाकर उसकी जगह ‘पपेट’ लिखा. अखबार ने इसमें फिर बदलाव किया और ‘पपेट’ की जगह ‘पूडल’ लिख दिया. आखिर में अखबार ने फिर बदलाव किया और ‘पूडल’ की जगह ‘अंडरअचीवर’ शब्द जोड़ दिया. अखबार ने अपने लेख में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार के जुनून को खत्म हो चुका बताया है. साथ ही यह भी लिखा गया है कि उन्होंने देश के विकास की रफ्तार भी रोक दी.
‘टाइम’ बहुत कुछ कहता है
‘टाइम मैगजीन’ बहुत कुछ कहता है. अजीब है ‘इसकी कहानी भी जहां हवा का रुख होता है वहीं अपनी दास्ता लिखता है’. कुछ दिनों पहले ही गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को ‘चतुर राजनेता’ करार देने वाली मैगजीन ‘टाइम’ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘अंडरअचीवर’ कहा था. इसी मैगजीन ने तीन साल पहले मनमोहन सिंह को एक ऐसे शख्सम की संज्ञा दी थी जिसने लाखों लोगों की जिंदगियां बदल दी थीं. लेकिन पत्रिका ने अपने ताज़ा संस्करण में मनमोहन सिंह की काबिलियत पर सवाल उठाते हुए पूछा कि क्यां मौजूदा पीएम धीमी विकास दर, नीतियां लागू नहीं करने और आर्थिक सुधार के मोर्चे पर नाकाम रहने के आरोपों का बखूबी सामना कर पाएंगे? मैगजीन ने केंद्र की मौजूदा यूपीए सरकार की आलोचना करते हुए लिखा है, ‘रोजगार पैदा करने वाले कानून संसद में अटके हैं और जनप्रतिनिधियों पर से लोगों का भरोसा घटने लगा है, जो चिंता की बात है.
विदेशी हस्तक्षेप की राजनीति
भारत के मामलों में हस्तक्षेप करने की विदेशी राजनीति है जिसे समझना जरूरी है. अमेरिका में यह राष्ट्रपति चुनाव का वर्ष है. आर्थिक मंदी की चपेट में फंसा वह देश अपनी खस्ता हालत के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराता रहा है. भारत इसी कारण हमेशा निशाने पर रहा है. अमेरिका के अनुसार सस्ते-कुशल श्रमिकों, कारीगरों, इंजीनियरों के इस्तेमाल से भारत अमेरिकियों को मिल सकने वाला रोजगार अपने यहां लूट ले जाता है. सच तो यह है कि अमेरिका की नजर में आर्थिक सुधारों का अर्थ भारत के बाजार, सेवा क्षेत्र को उसके प्रवेश के लिए बंधन-बाधा मुक्त करना है जबकि खुद उसके बाजार हमारे लिए बंद ही रहेंगे.
अब सवाल सही का है
द इंडिपेंडेंट ने लिखा है, ‘मनमोहन सिंह की परेशानी यह है कि उनके पास कोई वास्तविक राजनीतिक शक्ति नहीं है. वे अपने पद के लिए सोनिया गांधी पर निर्भर हैं. पीएम के राजनीतिक विरोधियों का कहना है कि उनकी नाक के नीचे भ्रष्टाचार फलता-फूलता रहा. कांग्रेस के भीतर से भी परोक्ष रूप से यह मांग उठती रही है कि उन्हें राहुल गांधी को पीएम बनाने के लिए कुर्सी छोड़ देनी चाहिए. यह सभी सवाल भारत के प्रधानमंत्री की स्थिति पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं. शायद कुछ हद तक इन सभी सवालों को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि प्रधानमंत्री अपने दायित्वों से भाग नहीं सकते हैं और ना ही हर बार इस बात का हवाला देकर बच सकते हैं कि गठबंधन की मजबूरियां होती हैं. सरकार चलाने के लिए प्रधानमंत्री की मजबूरियां हो सकती हैं पर प्रधानमंत्री का दायित्व केवल सरकार चलाना नहीं है. उनका सबसे सर्वोच्च दायित्व प्रधानमंत्री पद के लिए जो कार्य और जिम्मेदारियां संविधान में लिखी गई हैं उन सभी जिम्मेदारियों को पूरा करना है ना कि मजबूरियों का हवाला देना है.
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