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“यादें याद आती हैं,बस याद आती हैं”
यादों का क्या कहना ?
‘अजीब होती हैं ये यादें, कभी तन्हाई में चली आती हैं और कभी भीड़ का सहारा लेती हैं’. हैरानी होती है इन यादों पर कि इन्हें आना चाहिए बातों और पलों को याद करने के बाद पर कभी-कभी याद आने के बाद बातों और पलों की याद आने लगती है. हर किसी व्यक्ति के पास बहारों और गमों दोनों की यादें होती हैं पर क्या कभी आपने उन यादों के बारे में सोचा है जो आपको भीड़ में तन्हां कर जाती हैं. आज हम उन्हीं यादों को याद करेंगे.
यादों की गुजारिश
बार-बार आपकी कुछ यादें आपसे जरूर गुजारिश करती होंगी कि आप उन्हें याद करने पर मजबूर हो जाते होंगे. पर कभी-कभी यादों की गुजारिश आपको डरा या रुला देती हैं या आपके चेहरे पर फिर से मुस्कान ले आती हैं. कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि यादें व्यक्ति के साथ खेल खेलती हैं – जब चाहा रुला दिया और जब चाहा हंसा दिया.
“इन यादों से कह दो जी लेने दें मुझे मेरे अस्तित्व में, मुझे यादों का साथ गवारा नहीं, पर वो यादें मुझसे बार-बार कहती हैं जब अकेला था तू तब तेरे साथ थी, जब खुश था तू तब तेरे साथ थी फिर क्यों तुझे मेरा साथ गवारा नहीं?”
यादें बोलती हैं
यादों का कहना है कि तेरे जमाने के मुसाफिर जिन पर तुझे भरोसा है वो जब तू तन्हा होता है तब ही तेरा साथ छोड़ देते हैं और कहां तू भीड़ में उनसे साथ की उम्मीद करता है. यादें कहती हैं कि मैं तो तेरा साथ जब देती हूं जब तू चाहता है और ना जाने कितनी बार तेरे बिना कहे तेरा साथ दिया है. सच ही तो है यादें अजीब होती हैं पर जमाने के मुसाफिरों से कही बेहतर हैं. उम्मीद है कि जिन्हें यादों को याद करने से भय होता होगा वो कहीं दूर हो जाएगा.
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